मंगलवार, 28 जनवरी 2014

हिन्दुस्तानियत को रेखांकित करती हैं अरुण आदित्य की कवितायें


!! एकल काव्यपाठ के दौरान बोले पूर्व महाधिवक्ता एसएमए काज़मी !!
इलाहाबाद। अरुण आदित्य की कवितायें हिन्दुस्तानियत को बखूबी ढंग से रेखांकित करती हैं। इनकी कविताओं में भारत के गांव और संस्कारों का जिक्र होता है तो हम कहीं भी शर्मसार नहीं होते बल्कि गौरव का अनुभव करते हैं। श्री आदित्य ने अपनी कविताओं में देशकाल और सांप्रदायिकता विरोधी चित्रों को बहुत शानदार तरीके से उकेरा है, ऐसी कविताओं से ही हमें वास्तविकता का अनुभव होता है। ये बातें पूर्व महाधिवक्ता एसएमए काज़मी ने गणतंत्र दिवस के मौके पर साहित्यिक संस्था ‘गुफ्तगू’ द्वारा लूकरगंज में आयोजित कवि अरुण आदित्य (संपादक-अमर उजाला, इलाहाबाद) के एकल काव्यपाठ कार्यक्रम के दौरान कही। वे बतौर कार्यक्रम अध्यक्ष बोल रहे थ,े कार्यक्रम में वक्ता के रूप में प्रो. अली अहमद फ़ातमी, मुनेश्वर मिश्र और डॉ. पीयूष दीक्षित मौजूद थे, संचालन इम्तियाज अहमद गाजी ने किया। श्री काज़मी ने कहा कि आज हम उपभोक्तावादी संस्कृति में जी रहे हैं, अब लोग व्यक्तिगत अनुभूतियों का भी विज्ञापन चाहते हैं, लेकिन वैचारिक मतदेभ स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, यही वजह है कि हमारी संस्कृति नष्ट हो रही है, ऐसे में श्री आदित्य की कवितायें बेहद प्रासंगिक हो रही हैं, इनकी कविताओं से यर्थाथ का बोध हो रहा है, कहीं भी बनावट महसूस नहीं होेता। मुख्य वक्ता के रूप में मौजूद उर्दू साहित्य के प्रख्यात आलोचक प्रो. अली अहमद फातमी ने कहा कि श्री आदित्य ने अपनी कविताओं में भारत के उन परंपराओं और प्रतीकों को रेखांकित किया है, जिन्हें हम भूलते जा रहे हैं। डिबिया, चक्का-चूल्हा, अम्मा, चौकी, गमछा जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए इन्होंने अंतरराष्टीय मामलों को रेखांकित किया है, यही इनकी कविताओं का सबसे बड़ा कमाल है। कहा जाता है कि असली भारत गांव में निवास करता है, इस बात को अरुण आदित्य ने अपनी कविताओं में बखूबी ढंग से रेखांकित किया है, हमारे लिए अच्छी बात यह है कि ऐसी सूझ-बूझ वाला व्यक्ति एक अच्छे अख़बार का संपादक है।
अपने वक्तव्य में वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि जिस प्रकार प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में गांव के पिछड़े-दलितों के दुख का बयान किया है, ठीक उसी अरुण आदित्य ने अपनी कविताओं में लोगों के दुखों को बेहतर ढंग से उकेरा है, साथ ही सुखद अनुभूतियों का भी एहसास कराया है। डॉ.पीयूष दीक्षित ने कहा कि अरुण आदित्य की कविताओं को सुनने के बाद भारत के उन परंपराओं का सुखद एहसास होने लगता है, जिन्हें हम भूलते जा रहे हैं।कार्यक्रम के शुरू में अरुण आदित्य ने अपनी कविताओं का पाठ किया।इस मौके पर शिवपूजन सिंह,नरेश कुमार महरानी, डॉ. शाहनवाज आलम, सीआर यादव, अजीम सिद्दीक़ी, राजेंद्र श्रीवास्तव, जयकृष्ण राय तुषार, शैलेंद्र जय, अनुराग अनुभव, सफ़दर काज़मी, हसीन जिलानी, दिनेश अस्थाना आदि मौजूद रहे।
SMA KAZMI
ARUN ADITYA
MUNESHWAR MISHRA
DR. PIYUSH DIXIT ON MIKE

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

नज़र कानपुरी को ‘गुफ्तगू’ ने दिया फिराक गोरखपुरी सम्मान

 
नज़र कानपुरी को यह पुरस्कार देना सही कदम
इलाहाबाद। नज़र कानपुरी की शायरी पढ़ने के बाद यह बात बिना किसी संकोच के कही जा सकती है कि इनको ‘फिराक गोरखपुरी सम्मान’ दिया जाना एक सही कदम है। जिस तरह की शायरी फ़िराक़ साहब ने की है, उसी सिलसिले को नजर साहब आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसे में ‘गुफ्तगू’ का यह कदम बेहद सराहनीय है। ये बातें वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार अजामिल व्यास ने 22 दिसंबर को गुफ्तगू द्वारा आयोजित फिराक गोरखपुरी सम्मान समारोह में महात्मा गांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय में बतौर मुख्य अतिथि कही। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ शायर इकबाल दानिश ने की जबकि संचालन इम्तियाज अहमद गाजी ने किया। विशिष्ट अतिथि यश मालवीय ने कहा कि नज़र साहब की शायर का फलक बहुत ही बड़ा है, इन्होंने कसे हुए शिल्प में मोहब्बत की शानदार शायरी की है।पुलिस अधिकारी होने के बावजूद इनकी शायरी बेहद कोमल है। वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि नजर साहब ने पुलिस विभाग में बेहद सराहनीय कार्य किए हैं, जो एक अच्छे इंसान की पहचान है, जो अच्छा इंसान होता है वही अच्छा शायर भी होता है। नजर की शायरी पढ़ने के बाद यह सहज ही एहसास हो जाता है। अध्यक्षता कर रहे इक़बाल दानिश ने कहा कि नजर कानपुरी मेरे सबसे होनहार शार्गिदों में से हैं। ऐसे दौर में जब लोग साहित्य से दूर भाग रहे हैं, ऐसे में नजर साहब बेहतरीन शायरी का नमूना पेश कर रहे हैं। अच्छी बात यह है कि वे उर्दू की शायरी करते हैं। दिनेश चंद्र पांडेय उर्फ नज़र कानपुरी ने अपने वक्तव्य में कहा कि गुफ्तगू ने मुझे सम्मानित करके और मेरे उपर अंक निकालकर मेरी बड़ी हौसलाअफजाई की है। इम्तियाज अहमद गाजी का कहना था कि हम पिछले 11 वर्षों गुफ्तगू का संचालन और प्रकाशन कर रहे हैं, लोगों के सहयोग से ही यह सिलसिल चला रहा है, आपकी हौसलाअफजाई होती रही तो यह सफर अभी बहुत आगे तक जाएगा। इस मौके पर संजय सागर शिवाशंकर पांडेय,संजय सागर,शुभ्रांशु पांडेय राजेंद्र श्रीवास्तव, एलखाक सिद्दीकी,रेहान खान, जयकृष्ण राय तुषार, शैलेंद्र जय आदि मौजूद रहेI
अनुराग अनुभव-
मैं हवा पुरवई, तुम महक सुरमई,
आओ मिलकर के कर दें समा जादुई
अजय कुमार-
गालियों से भरी ज़बान भी क्या,
सुन रहे मुग्ध हो ये कान भी क्या

शब्दिता संजू-
                                                            दर्द की इंतिहा हुई यारो,
मुझसे अब ये सहा नहीं जाता।


अमित कुमार दुबे-
                                                          अजब ही बात थी उसकी गली में,
अभी तक मैं वहां जाता रहा हूं।

डॉ.शाहनवाज़ आलम-
                                              आओ वक़्त रहते एक ऐसे खुदा की तलाश करें,
जो सभी इंसानों का खुदा हो


प्रभाशंकर शर्मा-
                                                      होंठ खामोश है दिल परेशान है,
लिख रहा हूं ग़ज़ल बस तुम्हारे लिए।


शिवपूजन सिंह-
पतझड़ में बहार बनके आयी एक नन्हीं परी,
अंधेरे में रोशनी बनके आयी एक नन्हीं परी।

कविता उपाध्याय-
                                                   लोग कहते हैं अंधेरों को उजाला कर दो,
                                                    शबनमी रात के पहलू में कई सपने हैं
छेड़ो न छेड़ो न रहने दो, अभी सजने दो।


इम्तियाज़ अहमद गा़ज़ी-
                                     जिसकी आंखों में पानी नहीं, उसके हक़ में दुआ कीजिए।
                                      प्यार करते हैं गर आप भी, एसएमएस कर दिया कीजिए।
भानु प्रकाश पाठक-
लक्ष्य पाना है तुम्हें अविरल चलो चलते रहो,
लाख आये मुश्किलें पर तुम सदा बढ़ते रहो।

पीयूष मिश्र-
साथ मेरा तुम दे न सकोगे होता है आभास,
दूर तुम उतना हो जाओगे, जितना मेरे पास।

मनमोहन सिंह तन्हा-
क्यूं खफ़ा हो कि तेरी राह में कांटे आये,
किसी की राह में कब फूल बिछाये थे तुमने।

शाहीन खुश्बू-
दिल इश्क़ में मेरा उनके जल जाय तो अच्छा।
शोलों की लपक उन तलक न जाय तो अच्छा।

डॉ.नईम साहिल-
   
                                              तुमने मुहैया मौत का हर सामान किया,
अव्वल-आख़िर अपना ही नुकसान किया।
 

अख़्तर अज़ीज़-
                                                              ज़ह्र दे कर वो सोचता होगा,
कहीं उल्टा असर न हो जाए।


रमेश नाचीज़-
                                                            नफ़रत से पूछते हैं मुहब्बत से पूछिए,
जो पूछना है आपको इज़्ज़त से पूछिए।


यश मालवीय-
तुम्हारी याद की तस्वीर लेकर, कि हम बैठे पुरानी पीर लेकर।
हवा खुद रक्स करने आ गयी है, कि पैरों में बंधी जंजीर लेकर।

नज़र कानपुरी-
                                                        सुहानी रात हो या धूप का सफ़र कोई।
वो साथ है तो मुझे ख़ौफ़ है न डर कोई।


इक़बाल दानिश-
                                                     दिल का ज़ख़्म महकता है गुलाबों की तरह,
सुर्खरु हैं तेरी नामूस पे मरने वाले।



बुधवार, 15 जनवरी 2014

गांव की तरक्की को देश की तरक्की मानते थे कैफी आज़मी


                                       -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
कैफी आज़मी ऐसे शायरों में शुमार हैं, जिन्होंने ज़िन्दगी के अंतिम पल तक इंसानियत का धर्म निभाया। उन्होंने न सिर्फ़ शायरी की बल्कि अपने शायर और अदीब होने का फ़र्ज़ भी बखूबी निभाया। कैफी आज़मी को आजमगढ़ स्थित अपने गांव मेजवां से बहुत लगाव था। ज़िन्दगी के आखिरी 20 साल उन्होंने गांव में ही बिताए। गांव को दूरसंचार से जोड़ा,पक्की सड़क बनवाई, पोस्ट आफिस में आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध कराई। उनकी कृति ‘कैफियात’ के नाम पर आजमगढ़ से दिल्ली के लिए कैफियात ट्रेन  भी चल रही है। एक विशेष बातचीत में कैफी आज़मी की बेटी और मशहूर फिल्म अभिनेत्री शबाना आज़मी ने मुंबई से फोन पर बताया कि वालिद का मानना था कि देश की तरक्की तभी हो सकती है, जब गांव की तरक्की हो। यही वजह है कि फालिज की गिरफ्त में आने के बाद वे मुंबई छोड़कर आजमगढ़ आ गए थे। शबाना कहती हैं कि यह जानकर बहुत अच्छा लगता है कि आजमगढ़ के लोग आज भी उनकी बड़ी इज़्ज़त करते हैं। जयंती और पुण्यतिथि पर उन्हें खिराज-ए-अकीदत पेश करते हैं।
इससे पहले एक बार कैफी आज़मी की पत्नी शौकत कैफी ने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया था कि एक दिन घर में सवा चार बजे अस्पताल पहुंची, कैफी बिस्तर पर पड़े थे। उनके कमरे के दरवाजे पर ‘डू नाट डिस्टर्ब’ की तख्ती लगी थी। मैं खुद भी चार बजे से पहले उनके कमरे में दाखिल नहीं हो सकती थी। अस्पताल में मैंने देखा कि एक छात्र कैफी के सिरहाने बैठा अपना दुखड़ा सुना रहा है। सिरदर्द के बावजूद वह बड़े ध्यान से उसकी बातें सुन रहे हैं। मैं देखते ही झल्ला गई। मैंने कहा, ‘हद हो गई डाक्टर ने आपको बात करने से भी मना किया है और आप उनसे बात कर रहे हैं।’ फिर मैंने उस लड़के से कहा, मियां तुम बाहर जाओ। लड़का उठकर जाने लगा तो कैफी ने अपनी लड़खड़ाती आवाज में कहा, ‘शौकत यह स्टूडेंट है इसे कुछ मत कहना। हो सके तो इसकी जो भी ज़रूरत हो उसे पूरा कर देना।’ अच्छा-अच्छा कहकर मैं भी बाहर निकल गई। पूछने पर पता चला कि वह अहमदाबाद का रहने वाला है, सौतेली मां के अत्याचार से घबराकर भाग आया है, वह कैफी से काम मांगने आया था। एक अन्य घटना का जिक्र करते हुए शौकत कैफी ने बताया कि एक बार लॉन में बैठे लिख रहे थे। फूल-पौधों से उन्हें बड़ा प्रेम था। इसके लिए वे बहुत परिश्रम करते थे। फूलों के बाग में उसी वक्त एक मुर्गी अपने दस-बारह छोटे-छोटे बच्चों के साथ आ गई, वह अपने पंजों से गमलों के बीज कुरेद-कुरेदकर खाने लगी। बस कैफी को एकदम गुस्सा आ गया। उन्हें भगाने के लिए उन्होंने एक छोटा सा पत्थर उनकी ओर फेंक दिया। वह पत्थर मुर्गी के एक बच्चे को लग गया और वह तड़पने लगा। बस फिर कैफी से रहा न गया। वे जल्दी से अपनी जगह से उठे, मुर्गी के बच्चे को पानी पिलाने और किसी तरह से उसे बचाने की कोशिश करने लगे। जब वह बच न सका तो उन्होंने कलमबंद करके रख दिया और दो दिन तक कुछ नहीं लिखा। मुझसे कहने लगे मैंने बहुत ज्यादती की। उन्हें आवाज़ से भी भगा सकता था। जब बैठता हूं वह मुर्गी का बच्चा नज़रों के सामने घूमने लग जाता है। मैंने हंसकर बिल्कुल बच्चों की भांति समझाया यह तो आकस्मात हो गया, आपने जानबूझकर उसकी जान नहीं ली है।
11 साल की उम्र से शुरू किया था शेर कहना
अतहर हुसैन रिज़वी उर्फ़ कैफी आज़मी का जन्म 14 जनवरी 1919 को आजमगढ़ के मेजवां गांव में हुआ था। घर में ही शेरो-शायरी का अच्छा-ख़ासा माहौल था। खुद उनके घर में शेरी-नशिस्त का दौर चलता था।कैफी ने 11 साल की उम्र में ही शेर कहना शुरू कर दिया था। पहली बार उन्होंने अपने घर में नशिस्त के दौरान कलाम पेश किया। जिसे सुनकर उनके पिता बहुत खुश हुए। उन्होंने कैफी को पार्रकर पेन और एक शेरवानी दी। इसी के साथ उनका उपनाम ‘कैफी’ रख दिया। तब से ही वे कैफी आज़मी हो गए। उनकी प्रमुख कृतियों में आखिरी शब,झंकार, कैफियात और आवारा सज्दे हैं। उन्होंन तमाम फिल्मों के लिए भी गीत लिखे, जिसके लिए उन्हें राष्टीय पुरस्कारों के अलावा फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। कलम के इस सिपाही ने 10 मई 2002 को इस दुनिया को अलविद कह दिया।
अमर उजाला में 14 जनवरी 2014 को प्रकाशित


शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

बुद्धिजीवी और साहित्यकार दिग्भ्रमित हैं - प्रो. वर्मा


 प्रो0 लाल बहादुर वर्मा का जन्म 10 जनवरी 1938 को छपरा में हुआ था, आपकी प्रारम्भिक शिक्षा गोरखपुर में हुई, आपने गोरखपुर विश्वविघालय से इतिहास में एम.ए. तथा ‘एंग्लो इण्यिन कम्यूनिटी इन इण्डिया’ विषय से डाक्टरेट किया उसके बाद आपने पेरिस से ‘‘इतिहास में पूर्वाग्रह’’ विषय पर शोध कर डाक्टरेट किया। आप उ. प्र. हिस्ट्री कांग्रेस और अखिल भारतीय स्तर पर हिस्ट्री कांग्रेस में अध्यक्ष है। लखनऊ विश्वविद्यालय के गोल्ड मेडलिस्ट हैं, मगर वे अपने को साहित्य एवं संस्कृति का प्रचारक ही मानते हैं। इन दिनों ‘अपने को गंभीरता से क्यों नहीं लेते है’ नामक प्रोजेक्ट पर काम कर रहे है। आपने अध्यापन की शुरूआत सतीश चन्द्र कालेज बलिया से प्रारम्भ किया। उसके बाद गोरखपुर विश्वविघालय में और फिर इलाहाबाद विश्वविघालय में इतिहास के प्रोफेसर हुए। उस दौरान आपने इतिहास की अनेक पुस्तकें लिखी जिनमें से प्रमुख हैं, ‘अण्डरस्टैण्डिग हिस्ट्री, एग्लों इंडियंस, इतिहास-क्यों, क्या, कैसे?’ ‘भारत की जनकथा’ इत्यादि। आपने अनेक पुस्तकों का अन्य भाषा से हिन्दी में अनुवाद भी किया है। जिनमें ‘नेचर आफ हिस्ट्री’ (अंग्रेजी से), फासिज्म-थियरी एंड प्रैक्टिस (फ्रेन्च से) जन इतिहास में ‘क्रिस हर्मन’ की ‘‘पिपुल्स हिस्ट्री आफ द वर्ल्ड’’ और ‘एरिक हॉप्स बाम’ की चार पुस्तकें ‘क्रान्तियों का युग’, ‘पूँजी का युग’, ‘साम्राज्य का युग’, ‘अतिरेकों का युग’, और साहित्य में अमेरिका के जनपक्षधर उपन्यासकार ‘होवर्ड फास्ट’ के ‘पाँच’ उपन्यास तथा ‘फासिजम’ पर ‘जैक लंडन’ द्वारा लिखी गई ‘आयरन हील ’ है। इसके अतिरिक्त ‘अन्धा राजकुमार’ का फ्रेंच भाषा से अनुवाद किया है। आपके उपन्यास भी बहुत लोकप्रिय हुए हैं जिनमें प्रमुख हैं, ‘उŸारपूर्व’, ‘मई-68 पेरिस’ तथा ‘जिन्दगी ने एक दिन कहा’ (भोपाल त्रासदी पर) आपकी पुस्तकें ‘यूरोप का इतिहास’, ‘विश्व का इतिहास’, ‘इतिहास क्या क्यों कैसे?’, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, गोरखपुर विश्वविद्यालय तथा बिहार के विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी शामिल की गई हैं। ‘मानवमुक्ति कथा’ तथा आपकी ‘आत्मकथा’ शीध््रा प्रकाशित होने वाली है। आपने 1972 में ‘भंगिमा’ नामक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन किया, उसके बाद आपने 1982 से ‘लोकचेतना’ नामक साहित्यिक पत्रिका प्रारम्भ की, जिसके केवल चार अंक ही प्रकाशित हो पाये. उसके बाद आप ‘इतिहास बोध’ नामक पत्रिका का संपादन कर रहे थे. इसके अतिरिक्त सन् 2012 से आप ‘सास्कृतिक मुहिम’ नामक पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं। आपने विभिन्न समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में कालम भी लिखे हैं। प्रसिद्ध हिन्दी दैनिक, ‘दैनिक जागरण’, ‘अमर उजाला’, तथा प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ में आप निरन्तर कालम  लिखते रहे हैं। अजय कुमार ने इनसे विस्तार से बात की। प्रस्तुत है उसका प्रमुख भाग-
सवालः बिगड़ते सामाजिक परिदृश्य में आज लिखा जा रहा साहित्य कितना प्रभावी है, और अगर नहीं तो क्यों?
जवाबः  जो भी लिखा जा रहा है, उसमें बहुत कम प्रभावी है, इसलिए कि लिखने वाले का वास्तविक सरोकार नहीं बन पा रहा है, आज की समस्याओं और आज के लोगों से। चूँकि सरोकार हो तो प्रभावी जरूर बनेगा, और इसमें हिन्दी क्षेत्र की स्थिति सबसे बुरी है, क्योंकि हिन्दी क्षेत्र के बुद्धिजीवी और साहित्यकार सबसे कम, स्थितियों को समझ रहे हैं। इसलिए जो इस क्षेत्र की दरिद्रता है, वह इस क्षेत्र में लिए जा रहे साहित्य या समाज , विज्ञान, सबकी दरिद्रता में परिलक्षित हो रहा है।
 सवालः एक समय था जब साहित्य समाज का मार्गदर्शक था और आज कहा जा रहा है, आज साहित्य समाज के पीछे-पीछे चल रहा है।
जवाबः इसलिये कि प्रेमचंद ने साहित्य को मशाल कहा था। लेकिन ऐसा नहीं है कि साहित्य, हमेशा मशाल था या हमेशा मशाल रहेगा लेकिन साहित्यकारों की उस समय मंशा थी कि समाज का मार्गदर्शन हो, इसीलिये प्रगतिशील लेखक संघ बना था। मार्गदर्शन इस तरह हो कि समाज को लगे कि उसके सामने क्या क्या रास्ते हैं और उसमें से कोई रास्ता चुनने की उसके अन्दर क्षमता पैदा हो जाये, आजकल तो समाज को कौन कहे सारे बुद्धिजीवी सारे साहित्यकार ही दिग्भ्रमित हैं। बिडंबना ये है कि हर आदमी को लगता है जैसे रास्ता पता है, हर आदमी जिसे खुद रास्ता नहीं पता दूसरों को रास्ता दिखाने को तत्पर दिखाई देता है। तो एक भेडियाधसान चल रही है, जब कोई चल पड़ा लोग चलना शुरू कर देते हैं। रास्ता दिखाने की कूवत किसी में नहीं है।
सवालः साहित्य का सामाजिक सरोकार कैसे बढ़ाया जा सकता है।
जवाबः साहित्य स्वयं अपना सरोकार बनाये समाज से, और सरोकार बनाने के लिये जरूरी है कि उसे जाने समझे और साहित्यकार ही समाज का सबसे संवेदनशील प्राणी होता हेैं  इसलिये उसमें दर्ज होना चाहिए समाज में जो भी घटित हो रहा है, समाज की सीमाएँ समाज की महत्वकांक्षायें समाज की अच्छाइयाँ समाज की बुराईयाँ समाज के द्वन्द्व, लेकिन जब साहित्यकार ही संवेदनशील नहीं होगा तो जाहिर है कि वह कैसे चित्रित करेगा। उसका संवेदनशील होना प्रर्याप्त नहीं होता उसका समझदार व विवेकशील होना भी जरूरी होता है, जरूरी है कि साहित्यकार पहले स्वयं को तैयार करें यानी वह संवेदनशील हो, वह समझदार हो, वह विवेकशील हो, और बजाय इसके कि उपदेश दे, वह अपने साहित्य और अपने जीवन में कुछ ऐसा करे जिससे लोगों को खुद लगे कि यह राह है।
सवालः विभिन्न सरकारों (केन्द्र एवं राज्य) की साहित्यिक नीति कितनी स्पष्ट हैं?

जवाबः एकदम स्पष्ट नहीं हैं, क्योंकि पहली बात तो केन्द्रीय या प्रान्तीय राज्यों कि कोई सांस्कृतिक नीति ही नहीं है, और मैं समझता हूँ, जवाहर लाल नेहरू के बाद वास्तव में साहित्य को समझने वाले नेताओं की ही कमी होती चली गई और नेहरू जी ने समझा ज्यादा पर किया बहुत कम, तो इसलिये भारत में जो सरकार द्वारा दिशा देने का प्रश्न है, वह निश्चित रूप से अवांछनीय है, और सरकारों ने तो पुरस्कार देकर, अनुदान देकर, साहित्य और संस्कृति को भ्रष्ट ही किया है। राह दिखाने की बात कौन करे?
सवालः पिछले दिनांे हिन्दुस्तानी एकेडमी के अध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर कुछ संस्थायें आन्दोलन चला रही हैं। आप इसे किस रूप में देखते हैं?
जवाबः मुझे भी कहा गया था, इसमें भागीदारी करने को मेरा सीधा पक्ष था, मैं दो-तीन बातें कह रहा था आन्दोलन चलाने वालों से, पहली बात यह कि यह कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है, गलत आदमी हिन्दुस्तानी एकेडेमी में ही नहीं नियुक्त हुआ है, देश चलाने वाले बहुत से लोग गलत हैं और हिन्दुस्तानी एकेडेमी में अगर कोई गलत आदमी नियुक्त किया गया है तो उसे नियुक्त करने वाले ही कौन बहुत सही हैं। दूसरी बात कि हिन्दुस्तानी एकेडेमी ऐसी संस्था है, जिसका समाज पर कोई प्रभाव नहीं है, यह केवल साहित्यकारों की अपनी संस्था है, जिसका समाज से कुछ लेना देना नहीं है। इसलिये वहाँ पर कुछ अच्छे भी काम होते रहे और पहले भी बुरे काम होते रहे हैं, जिनका समाज पर कोई असर नहीं पड़ता, जबकि एक गलत शिक्षक नियुक्त हो जाये तो वो समाज का बहुत बुरा कर सकता है, तो आन्दोलन करने वालों से मैंने कहा आप लोग गलत शिक्षक नियुक्त हो जाने पर कुछ नहीं कहते हैं प्राइमरी से विश्वविघालय तक ,और एक ऐसी संस्था जिसका समाज से कुछ लेना देना नहीं है उसमें एक ऐसा आदमी नियुक्त हो गया जो आपकी नजरों में गलत है, तो इतना बड़ा आन्दोलन खड़ा कर दिये, इसका मतलब आपकी प्राथमिकतायें गलत हैं। अगर आप गलत नीतियों से नाराज हैं तो समाज की कौन कौन सी नीतियाँ गलत हैं उनका विरोध करिए।
सवालः नये लेखकों को अधिक से अधिक साहित्य से जोड़ने के लिये आप क्या करेंगे?
जवाबः- मैं युवाओं से कहता हूँ, कि आप में सबसे अधिक ऊर्जा है, सबसे अधिक आप समकालीन हैं, पिछड़ेपन से लड़िये आप समकालीन हैं तो कोई भी संकीर्ण विचार हो, मानसिकता हो उससे बचिये ताकि आज के आदमी आप बने रहिये, और ये अवसर का समय है, युवाओं के लिये जिस समय को लोग कह रहे है कि बहुत खराब है। चार्ल्स डिकेन एक बहुत बड़े उपन्यासकार हुए हैं, उनकी एक बड़ी मशहूर किताब है‘‘ टेल ऑफ टू सिटीज’’ जिसकी पहली पंक्ति है( फ्रांसीसी क्रान्ति के बारे में )‘‘ वे कितने अच्छे दिन थे वे कितने बुरे दिन थे।’’ मैं समझता हूँ आज के लिये भी ये कहा जा सकता है‘‘ ये बहुत अच्छे दिन हैं और ये बहुत बुरे दिन है।’’ युवा ही वास्तव में इसे अच्छा बना सकते हैं और फ्रांसीसी क्रांति के ही समय एक और बहुत बड़ी बात कही गयी थी जो युवाओं को ध्यान में रखना चाहिये, पहली बात वर्डस्वर्थ नाम का एक बड़ा कवि हुआ हैं, इंग्लैण्ड में उसने फ्रांसीसी क्रांन्ति पर दो पंक्तियाँ लिखी थी, जिसका मतलब था, आज के समय में जिन्दा रहना बड़ी बात है,और युवा होना मानो स्वर्गिक है। क्योंकि आज जो युवा है वह कितना कर सकता है, लेकिन उसे अपनी समझदारी अपना विवेक विकसित करना चाहिये।
सवालः क्या साहित्य लेखन के लिये गुरु का होना आवश्यक है?
जवाबः आवश्यक तो नहीं मानता मैं, क्योकि गुरु के पीछे जो पारंपरिक धारणा है, उसमें अच्छाई से अधिक बुराई आ गई हैं, क्योकि गुरु ऐसा माना जाता था कि वह अप्रश्नीय है, वह सब कुछ जानता है, और उसके प्रति शिष्य का कोई आलोचनात्मक व्यवहार नहीं होता था, इसीलिये गुरु द्रोणाचार्य भी हो जाते हैं और एकलव्य का अंगूठा माँग लेते थे। इसलिये मैं कहता हूँ आज की दुनिया में अनुकरण ही ठीक बात नहीं है, किसी को किसी का अनुकरण नहीं करना चाहिए जो बात हमें अच्छी लगे उसे हमारी अपनी बात मान कर लागू करना चाहिए, इसलिए गुरुडम बहुत खराब चीज़ है लेकिन फिर भी ,कभी कभार कोई व्यक्ति हमें दिशा दिखा देता है तो उस वक्त का हमारा गुरू हुआ लेकिन कोई स्थाई गुरु नहीं हो सकता जैसे एक समय में तुम मेरे गुरु हो सकते हो क्योंकि जब तुम मुझे रास्ता दिखाओगे तो तुम मेरे गुरु हुए, ये समाज की बात है अवसर की बात है, किसी को स्थाई गुरु मान लेना मैं समझता हूँ जनवादी विचार नहीं है। सबमें गुरु होने की संभावना है, यह माना जाये तो अच्छी बात है।
सवालः छन्दमुक्त कविताओं पर प्रश्न उठाये जाते हैं, आप इसे किस रूप में देखते हैं?
जवाबः  छंदमुक्त कवितायें हो या छंदबद्ध कवितायें हो, कविता छंद से नहीं बनती, कविता ‘संस्लिष्ट सौन्दर्य बोधक विचार’ है इसलिये कविता वाल्मीकि कालीदास शेक्सपियर और निराला में भी हो सकती है ये छंद की बात भी करते हैं और छंद को तोड़ते भी हैं, शेक्सपियर ने सानेट भी लिखे है और फ्रीवर्स भी लिखा है,निराला ने छन्दबद्ध भी लिखा है और छन्द को तोड़मरोड़ भी दिया इसलिये छन्द होना या न होना महत्वपूर्ण नहीं है, कविता का कविता होना ज्यादा जरूरी है।
सवालः गुफ्तगू पत्रिका में हिन्दी एवं उर्दू का मिला जुला साहित्य प्रकाशित होता है क्या आज इसकी प्रांसगिकता हैं?
जवाबः बहुत ज्यादा,बस मैं यह चाहता हूँ कि गुफ्तगू पत्रिका हिन्दी वालों में उर्दू के प्रति और उर्दू वालों में हिन्दी के प्रति अपनापन पैदा करे और कर भी रही है, तो निश्चित रूप से मैं इसकी प्रंासगिकता समझता हूँ।
सवालः क्या आज के काव्यमंच साहित्य की श्रेणी में आते हैं?
जवाबः निश्चित ही आते हैं, साहित्य कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे कुछ लोग तय करें कि ये साहित्य है ये नहीं हैं। और मंच जो करता है, सही भी करता है, गलत भी करता है। मेरा तो इसी पर ऐतराज है कि लोकगीतों को क्यों नहीं साहित्य माना जाता सिनेमा को क्यों नहीं साहित्य माना जाता। सिनेमा के गीतों को क्यों नहीं साहित्य माना जाता। अब मंच पर कही भडैती हो रही है, चुटकुलेबाजी हो रही है तो ये मंच का दोष है, साहित्य का दोष थोड़े ही है। हर चीज़ का व्यवसायीकरण हुआ है. दोषी तो वो लोग हैं, जो मंचों के माध्यम से पैसों का हेर फेर कर रहे हैं। इसलिए वह भी साहित्य समाज का दर्पण है और दर्पण खाली अच्छी चीज थोड़े ही दिखाता है दर्पण चेहरे पर जो दाग हैं वो भी दिखाता है, तो मंचों पर जो गलत हो रहा है। अगर साहित्य से बाहर कर देने भर से थोड़ो वो दाग मिट जायेंगा, मंचों को ठीक करने की जरूरत है।
सवालः इलेक्ट्रानिक मीडिया का बूम या अत्यधिक प्रचार साहित्य पर क्या प्रभाव डालता हैं?
जवाबःसाहित्य अपने को चाहे जितना पवित्र माने लेकिन साहित्य या कोई भी व्यक्ति इलेक्ट्रानिक मीडिया से बच नहीं सकता है, क्योकि वह एक सामाजिक उत्पाद है। और निश्चित रूप से इसका ज्वार आया हुआ है,अब  साहित्य समर्थ होगा तो इस मीडिया का भरपूर इस्तेमाल करेगा। और लोगों तक पहुँचेगा और नहीं करेगा तो मीडिया तो अपना काम कर रहा है, उसमें अश्लील बातें खूब प्रचारित हो रही हैं, अगर आप ऐसा साहित्य उसमें दें जो लोगों का मनोरंजन कर सके लोगों को विवेक दे पाये तो लोग उसी को सुनेंगे इसमें उस मीडिया का निश्चित ही अच्छा प्रभाव पड़ सकता है, हम नहीं कर पा रहे हैं, ये हमारी सीमा है।
गुफ्तगू के दिसंबर-2013 में प्रकाशित