मंगलवार, 23 जुलाई 2013

पुरानी यादों के मंज़र सुहाने लगते हैं


                          मुनव्वर राना
‘ऐन रशीद’, मुझे उस वक़्त से अच्छे लगत थे, जब मैं मोहम्मद जान हायर सेकेंडरी स्कूल की आठवीं जमात में पढ़ता था। ‘ऐन’ रशीद, शुम्सुज्जमां, कलीमुद्दीर शम्स, मन्नान रशीद, मुनीर नियाज़ी और वसीमुलहक़ वगैरह अब्बू के नौजवान दोस्तों में थे। अब्बू को शायर व अदीब हजरात से बहुत लगाव था, अब्बू शायर या अदीब नहीं थे लेकिन शायद वह अपनी इस महरूमी को शायरों, अदीबों, सहाफि़यों, दानिशवरों और कलंदर सिफ़त लोगों में उठबैठकर पूरा करते थे। प्रो. एज़ाज अफ़ज़ल, सालिक ‘लखनवी’, रईस अहमद जाफ़री, शाहाब लखनवी, सोज़ सिकन्दरपुरी और महमूद अयूबी की बहुत बेतकल्लुफ़ी थी। ज़ाहिर है कि इन हालात में खरबूजे का खरबूजे को देखकर रंग बदलना यक़ीनी था। अपनी ट्रेेनिंग में के सिलसिले में ऐन रशीद को कुछ दिनों के लिए इलाहाबाद में क़याम करना था। शम्सुज्जमां साहब की याद दिहानी पर उनके रहने और ठहरने का इंतज़ाम इलाहाबाद में नेमतुल्लाह साहब के घर पर किया गया। ये ऐन रशीद का रख रखाव था कि वह मुझसे हमेशा नेमतुल्लाह साहब और उनके घरवालों के बारे में पूछते और बरसरे महफि़ल अपनी मुसीबत के दिनों में मदद करने वालों को याद करते थे। अब्बू जब तक जिन्दा रहे, अपनी अहबाब के बारे में मुझसे बराबर पूछते रहते थे। माजी की मुंडेर पर बैठे हुए यादों के कबूतर कभी पत्थर मारने से भी उड़ते हैं। पुराने दोस्त, पुरानी चीज़े, पुराने वाक़यात और पुराने खतूत के बराबर दुनिया की कोई चीज़ कीमती नहीं हो सकती। जिस दिन वकील ‘अख़्तर’ का इंतिकाल हुआ था, उस दिन कलकत्ते में गाडि़यों की हड़ताल थी। वकील अख़्तर की बेज़ान मिट्टी को उनके गांव की मिट्टी बुला रही थी। शम्सुज्जमा साहब ने अब्बू को सूरतेहाल बताई। हड़तालियों के मारपीट करने की वजह से कोई भी ड्राइवर ट्रक ले जाने के लिए राज़ी नहीं था। अब्बू खुद ट्रक के स्टेयरिंग पर बैठे और गाड़ी वेलसिली स्ट्रीट तक चलाकर ले गये। काश! में उनके इस खिदमते ख़ल्क़ जज्बे पूरी तरह आरास्ता हो सकता। ‘ऐन’ रशीद की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वह छोटे बड़ों का बहुत लिहाज़ रखते थे और सबको अच्छे लगते थे। सबके  पंसदीदा थे, सबके चहेते थे। मैं पूरी इमानदारी से यह अजऱ् कर सकता हूं कि मैंने पूरे हिन्दुस्तान में इतना इमानदार पुलिस अफ़सर नहीं देखा बल्कि ऐसी हमाजिहत शख़्सीयतें तो अमूमन किस्से कहानियों में नज़र आती हैं-
जो डूबना है तो इतने सूकुन से डूबो
कि आसपास की लहरों को भी पता न लगे
।- क़ैसर-उल-ज़ाफ़री
उर्दू वालों में ऐसे ज़हीन, फराख़दिल, ईमानदार और निडर लोगों की हमेशा कमी रही है। जो कलंदरी को लगे लगाये। ज़ेहानत की दिल खोलकर कद्र करें। खुश मज़ाकी का एहतराम करें कि ये फूल बहुत देर तक तरोताज़ा नहीं रहते लेकिन शायद उर्दू ज़बान की बदनसीबी है कि ‘शाद’ आरफ़ी ने रामपुर के एक फोटो के स्टुडियों के बाहर लकड़ी के एक स्टूल पर बैठकर जि़न्दगी गुजार दी, ‘यगाना’ सारी जि़न्दगी शह्रे तहज़ीब के तमाम हमअस्र शायरों और अदीबों के ज़रिये जलील होते रहे। ‘मस्त’ लखनवी को कव्वाली का शायर कहकर ‘वहशत’ व ‘टैगोर’ की अदबी चटाई से बाहर कर दिया गया, ‘मुज़तर’ हैदरी को बंधे हाथ पैरों समेत गोल तालाब के गहरे पानी में डूब जाने दिया। इब्राहीम होश को घर का एक कोना पकड़कर मर जाने दिया, ‘शहूद’ आलम आफ़ाक़ी सारी जि़न्दगी उर्दू की जं़ग में ज़रूरी असलहे के बग़ैर लड़ता रहा। ‘सालिक’ लखनवी की बूढ़ी आंखें किसी अच्छे अस्पताल का सफ़्फ़ाक़ बिस्तर ढूढने में क़तरा-क़तरा बुझ रही है।
अपने ओहदे, अपनी इल्मी लियाकत और क़दआवर शखि़्सयत के बावजूद स्टेज पर जहां जगह मिली, वहां बैठे जाने की अदा सिर्फ़ ऐन रशीद के पास थी जो उनके साथ ही हज़ारों मन मिट्टी के नीचे दबकर सो गई-
लोग ढूढ़ंेगे हमें भी हां मगर सदियों के बाद
जब ज़मीनों से कभी पत्थर निकाले जाएंगे।
- कबीर अंजुम
उनकी सबसे अच्छी आदत यह थी कि उन्हें जिस महफि़ल में बुलाया जाता था, वह अपनी तमाम मसरूफि़यतांे के बावजूद जाते थे लेकिन उनकी शखि़्सयत के आगे अपने आपको शमा महफि़ल समझने वाले साहबान आंधी के चिराग़ की तरह लरज़ने लगते थे। शह्र के तमाम साहबाने दस्तार अपनी-अपनी दस्तारों पर मसलिहत के पत्थर रख लेते थे। उनकी कलंदरी की कोई कद्र नहीं करता था, बल्कि दिल ही दिल में कुछ हज़रात नापसंदीदगी का इज़हार भी करते थे. उनकी शबो-रोज़ की मयख़्वारी के पर्दे में अपनी-अपनी ख़बासते छुपाते थे. अपनी अदबी कम मायेगी की चोट पर उनकी ग़ीबत की शराब मलते थे कि उससे दर्द में काफ़ी कमी हो जाती है। ऐन रशीद ने जिस शान से जि़न्दगी गुज़ारी, उसी शाने बेनियाज़ी से दुनिया से उठकर चले भी गये। न बीमारी का ऐलान किया, न किसी को तकलीफ़ दी, न बिस्तर पकड़ा, न ऐडि़या रगड़ीं, न रोये, न गिड़गिड़ाए। सच है कि अल्लाह अपने नेक बंदों पर मौत आसान कर देता है-
जि़न्दगी जिसका बड़ा नाम सुना जाता है
एक कमज़ोर सी हिचकी के सिवा कुछ भी नहीं
- नामालूम
वह सारी जि़न्दगी फ़कीराना अदा के साथ जिन्दा रहे। न दौलत की हवस, न शोहरत का गुर्रा, न खुद साख़्ता अज़मतों की ख़्वाहिश, नौकरी की तो बादशाहों की तरह, शायरी भी की तो अपनी मिज़ाज और तबीयत के मुताबिक, शराब भी पी तो अपनी पसंद और मूड के मुताबिक, गुफ़्तगू की तो स्टाइल में, सारे हिन्दुस्तान में (कलकत्ते को छोड़कर) उनके चाहने वाले, उनकोे पसंद करने वाले, उनसे मोहब्बत करने वाले आसानी से शुमार नहीं किये जा सकते. ये खुशनसीबी कलकत्ते के किसी और शायर को मुश्किल से नसीब हो सकेगी। दरअसल, ऐन रशीद मग़रिबी बंगाल की अदबी पेशानी पर दमकते हुए उस झूमर की तरह थे जिसमें कलंदरी और बेनियाज़ी के हजारहा मोती जड़े हुए थे। यूं भी झूमर कैसा भी हो उसके बग़ैर पेशानी बग़ैर आबिद की इबादतगाह लगती है। उनका शेरी मज़मूआ, उनकी जि़न्दगी में मंज़रेआम पर नहीं आ सका, इससे उनकी फ़क़ीर मिज़ाजी और ज़ेबे ख़ास की हालत का अंदाज़ा लग जाता है लेकिन वह अपना मसौदा कमोबेश रोज़ ही उलटपलटकर देखते थे। उन्हें ये तो मालूम था कि मसौदे के कासे में भीख उसी वक़्त मिलती है जब आप यह तहरीर कर दें कि आप फ़क़ीर हैं, लेकिन जो शख़्स ज़ेहानत और लियाक़त का बादशाह हो, वह भीख कैसे मांग सकता है.
11-12 बरस पहले धनबाद में एक हिन्दो-पाक मुशायरे का इनएकाद हुआ था। सरदार मनमोहन सिंह धनबाद के एसएसपी थे और अभय कुमार ‘बेबाक़’ जो  खुद भी बड़े ताज़ाकार शायर हैं, धनबाद में एसपी सिटी थे। पुलिस वालों की अदबी दिलचस्पी के बायस ये मशरिक़ी हिन्दुस्तान का बड़ा मुशायरा था। डा. मुजफ्फ़र हनफ़ी और ऐन रशीद को भी इस तारीख़ी मुशायरे में शरीक़ होना था। तयशुदा प्रोग्राम के मुताबिक ऐन रशीद, डा. साहब के फ्लैट पर पहुंच गए। डाॅ. साहब भी सामाने सफ़र बांधे हुए थे। डाॅ. साहब के घर पे ‘शहूद’ आलम आफ़ाक़ी भी तशरीफ़ फ़रमा थे। शहूद भाई की डाॅक्टर साहब बहुत कद्र करते थे। एक तरफ़ महकमए पुलिस के आला तरीन ओहदे पर बिराजमान ऐन रशीद और दूसरी तरफ तारीख़ साज़ कलकत्ता यूनीवर्सिटी के इक़बाल चेयर के प्रोफेसर मुजफ्फ़र हनफ़ी और कहां एक ग़रीब ट्राम कंडक्टर शहूद आलम आफ़ाक़ी। लेकिन जब डाॅक्टर ने ऐन रशीद को बताया कि ‘शहूद’ साहब भी हमलोगों के साथ धनबाद चलेंगे तो ऐन रशीद ऐसे खुश हो गए जैसे कस्बात में बच्चे ईदगाह देखकर खुश हो जाते हैं। तीन शायरों पर मुश्तमिल ये काफि़ला हावड़ा स्टेशन पहंुचा। पुलिस के कई आला अफ़सर ऐन रशीद की खिदमत पर मामूर थे। एक पुलिस आफी़सर ने ऐन रशीद साहब को उनके तयशुदा प्रोग्राम के मुताबिक राजधानी के एसी कोच के दो टिकट लाकर दिये। पुलिस और मिलेट्री के आलातरीन हुक्काम के नाम चार्ट और टिकट में कुछ एहतियातों के बिना पर दजऱ् नहीं किये जाते, लेकिन ज़ाहिर है कि ये दोनों  टिकट ऐन रशीद और मुजफ्फ़र हनफ़ी साहब के लिये थे। ज़हीनतरीन ऐन रशीद ने फ़ौरन महसूस कर लिया कि ‘शहूद’भाई अपनी ग़ुरबत और कम माईगी की बिना पर टूट फूट जाएंगे और मुमकिन है तकल्लुफ़ में धनबाद जाने से इंकार भी कर दें। ऐन रशीद ने पास खड़े मुअद्दिब पुलिस अफ़सर से कहा कि भई ये दोनों टिकट तो ‘शहूद’ साहब  और डाॅ. मुजफ्फ़र हनफ़ी साहब के हैं। शायद आपलोग हमारा ही टिकट लेना भूल गये। सामने खड़ा पुलिस अफ़सर भी शायद सूरतेहाल जान चुका था। उसनेे  ऐन रशीद से कहा कि सर आप डिब्बे में तशरीफ़ रखें मैं दस  मिनट में आपका टिकट हाजिर कर रहा हूं। यह कहकर वह पुलिस अफ़सर एक और टिकट लेने के लिए काउंटर की तरफ भागा। रास्तेभर, ऐन रशीद, शहूद भाई की शायरी के गुलबूटों पर इज़हारे ख़्याल करते रहे। उनकी कलंदराना शखि़्सयत और अदबी खिदमात पर गुफ़्तगू करते रहे। एक पुलिस का आला अफ़सर अगर इतना हस्सास और दरियादिल हो तो उसे फ़रिश्ता ही समझना चाहिए क्योंकि पुलिस का महकमा तो इतना बदनाम है कि बक़ौल हक़ीम साहब वजू की हालत में पुलिस स्टेशन का नाम लेने से ही वजु टूट जाता है। धनबाद स्टेशन पर ऐन रशीद का इस्तक़बाल करने के लिए पुलिस के कई आला अफ़सर मौजूद थे। उनके साथ उनके मातेहत भी बाअदब बामुलाहिजा की तस्वीर बने हुए थे। ट्रेन रुकते ही डाॅक्टर साहब और ऐन रशीद का सामान पुलिस वालों ने अपने हाथों में ले लिया। शहूद भाई का खस्ताहाल सूटकेश ऐन रशीद के हाथ में था और वह उस सूटकेश को इस तरह से उठाये हुए थे जैसे नोबेल इनाम याफ्ता अपना प्राइज उठाये रहते हैं। कई मातेहत अफ़सरों ने उनके हाथों से सूटकेश लेना चाहा लेकिन उन्होंने यह कहकर सूटकेश किसी को सौंपने से इंकार कर दिया कि मैं इस एज़ाज में किसी को हिस्सेदार नहीं बना सकता। मुशायरे के बाद क़तील शिफ़ाई, निदा फ़ाज़ली और मख़्मूर सईदी में बहुत देर तक खुमार आलूद गुफ्तगू होती रही। मख़्मूर साहब उस बात पर नाराज़ हो रहे थे कि ऐन रशीद ने कई बार मेरे हिस्से की शराब भी पी डाली जो क़तई ग़ैर अख़लाकी हरकत है। ऐन रशीद अपनी सफाई इस मज़बूत दलील के साथ दे रहे थे कि मैं हमेशा अपने ज़र्फ़ के मुताबिक पीता हूं। आपकी  शराब तो अक्सर महफि़लों में इसलिए पी जाता हूं कि आप ज़्यादा शराब पीते ही गिलास की निचली सतह से भी नीचे आ जाते हैं और ये ख़राब सूरतेहाल मैं क़तई बर्दाश्त नहीं कर सकता कि एक बड़े शायर जो बेइंतिहा मुहज्ज़ब और खुशअख़लाक भी हैं, लोग तीसरे दर्जे  के शराबियों में शुमार करते फिरें।
मुशायरे की हाउ हू खत्म होने के बाद भी ऐन रशीद के दिल में एक फांस खटक रही थी क्योंकि जब ऐन रशीद अपने आबाई शहर तोप चांची पहुंचे, जहां उनकी वालिदा अपने छोटे बेटे शाहनवाज़ खां के साथ रहती थी। (ऐन रशीद के इंतिकाल के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने भी दुनिया से मंुह मोड़ लिया)घर में दाखि़ल होते ही ऐन रशीद बच्चों की तरह मां से लिपटकर कहने लगे कि इधर देखो अम्मा, मैं ऐसे शायर को लाया हूं जो तुम्हारे बेटे से भी बड़ा शायर है-
  नामुरादाने मोहब्बत को हिक़ारत से न देख   
  ये बड़े लोग जीने का हुनर जानते हैं। 
- सलीम अहमद
कुर्रतुलऐन हैदर कलकत्ता तशरीफ़ लायीं तो कलकत्ता दूरदर्शन वालों ने उनका इंटरव्यू  करने के लिए ऐन रशीद का इंतिख़ाब किया। ‘ऐनी’ आपा से इंटरव्यू लेना आसान काम नहीं है लेकिन ‘ऐन’ रशीद ने उनका यादगार इंटरव्यू लिया। बातचीत के दौरान ऐन रशीद ने एक शरारती सा सवाल किया कि ‘ऐनी’ आपा! आपने आजतक शादी क्यों नहीं की? ऐनी आपा ने हंसते हुए जवाब दिया कि मेरी शादी इसलिए नहीं हो सकी कि तलाश के बावजूद ‘ऐनी’ को कोई ‘ऐन’ नहीं मिल सका-
देर तक कायम रहे दाता तेरी ऊंची सराय
सब मुसाफिर हैं यहां कोई नहीं रह जाएगा
- वाली आसी
 

गुफ्तगू के अप्रैल-जून 2013 अंक में प्रकाशित

शनिवार, 13 जुलाई 2013

पहले शेर पर अब्बा ने की थी पिटाई - बशीर बद्र


 बशीर बद्र इस दौर के ऐसे शायरों में शुमार किये जाते हैं, जिनकी मक़बूलियत लोगों के सर चढ़कर बोलती है। भारत के अलावा दूसरे मुल्कों में भी इनकी शायरी से प्यार करने वालों की कमी नहीं है। मुशायरों में इनकी मौजूदगी कामयाबी की जमानत हुआ करती है। इनके तमाम अश्आर मुहावरों की तरह लोगों को याद है। 15 फरवरी 1935 को अयोध्या में जन्मे बशीर बद्र का असली नाम सैयद मोहम्मद बशीर है। इन्होंने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएचडी की। हिन्दी और उर्दू लिपी को मिलाकर लगभग डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें इमेज, आमद, लास्ट लगेज, आसमान, आहट, तुम्हारे लिये, आंच, उजाले अपनी यादों के, अफेक्शन, धूप की पत्तियां, हरा रिबन आदि प्रमुख हैं। शायरी में नये शब्दों के प्रयोग में ये अग्रणी रहे हैं।1996 में मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी ने उन्हें अखिल भारतीय मीर तक़ी मीर पुरस्कार दिया। 1999 में पद्मश्री और साहित्य अकादमी से नवाजा गया। पाकिस्तान से भी इनकी कई किताबें प्रकाशित हुई हैं। इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने उनसे बात की-
सवालः सबसे पहले आपको कब लगा कि आप शायर हैं ?
जवाबः बचपन में तकरीबन छ-सात साल की उम्र में शेर कहने का शौक़ हुआ। पहला शेर जो मुझे याद है और जिस पर अब्बा ने पिटाई भी की थी वो था-
    हवा चल रही है उड़ा जा रहा हूं/तेरे इश्क़ में, मैं मरा जा रहा हूं।   
सवालः हिन्दी पाठकों में ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने का श्रेय किसे देंगे?
जवाबः हिन्दी पाठकों में ग़ज़ल को पसंदीदा बनाने में ग़ज़ल के शायर, सिंगर, ग़ज़ल छापने वाले रिसाले सभी शामिल हैं। मुशायरे और कवि सम्मेलन की वजह से भी ग़ज़ल लोकप्रिय हुई।
सवालः दुनियाभर में आपके बहुत से शेर मशहूर हैं, मुहावरों की तरह इस्तेमाल किये जाते हैं, आप इसे किस रूप में देखते हैं?
जवाबः मैं इसे खुदा की मेहरबानी, करम और उसकी अता समझता हूं।
सवालः 21सदीं का सबसे मक़बूल शायर आप किसे मानते हैं?
जवाबः ये 22वीं सदी में मालूम होगा।
सवालः हिन्दी भाषा के कवि अब खूब ग़ज़लें लिख रहे हैं, आप इसे किस रूप में लेते हैं?
जवाबः  बहुत अच्छी बात है। मुझे बहुत खुशी हुई, हर ज़बान के कवि और शायर को ग़ज़ल लखना चाहिए। ग़ज़ल लिखने के मायने हैं कि उसके पास मोहब्बत भरा दिल है।
सवालः बार-बार यह बात सामने आ रही है कि ग़ज़ल की नफ़ासत, नज़ाकत और बह्र को जाने बिना ही हिन्दीभाषी लोग ग़ज़ल कह रहे हैं, जिसकी वजह से ग़ज़ल की दुगर्ति भी हो रही है?
जवाबः  जी हां, जो लोग ग़ज़ल की रूह को नहीं पहचान पाते वो दिल और दिमाग को छूने वाले शेर कह भी नहीं पाते।
सवालः नस्र की किस विधा को सबसे प्रभावशाली मानते हैं आप ?
जवाबः मैं तो ग़ज़ल का शायर हूं, फिर भी आप पूछ रहे हैं तो अफसाने, कहानियां और ड्रामे ये प्रभावशाली हैं। कोई एक नाम नहीं लिया जा सकता।
सवालः पाकिस्तान की शायरी भारत की शायरी से किस प्रकार अलग है, अलग है भी या नहीं ?
जवाबः पाकिस्तान और हिन्दुस्तान की शायरी में फ़कऱ् करना मुश्किल है। बस ये कहा जा सकता है कि हर मुल्क का शायर अपने आसपास अपने शहर अपने मुल्क और फिर दुनिया के हालात से मुतासिर होकर शायरी करता है और ख़्यालात का इज़हार करता है।
सवालः भारत में उर्दू की दयनीय हालत क्यों है?
जवाबः भारत में उर्दू मर नहीं रही है, मरी हुई उर्दू मर रही है। जिन्दा उर्दू तो ग्रो कर रही है, फैल रही है। 1985 में मैंने लिखा था कि पचास साल बाद 2035 में मेरे लिखे के बारे में बात करना, आज नहीं। तब तक उर्दू-हिन्दी-अंग्रेज़ी के हजारों लफ्ज़ों को उर्दू अपना लेगी। हम उर्दू में इंटरव्यू दे रहे हैं, आप हिन्दी में ले रहे हैं। यही फ़कऱ् है। वर्ना दोनों ज़बानें एक हैं। बुकिश लैंग्वेज मरेगी, आर्टिफिशियल लैंग्वेज मरेगी। हम ज़बान में शायरी करते हैं। उर्दू-हिन्दी एक है। जब मैं बोलता हूं तो भाषा शायरी की रहती है। मैं शायर की ज़बान की परवाह करता हूं, लिपि की नहीं। शायरी में सब भषाएं एक हैं।
सवालः अब तकरीबन हर उर्दू शायर की किताब हिन्दी में छप रही है, क्या अब उर्दू शायरों को पाठक नहीं मिल रहे हैं?
जवाबः  अब उर्दू और हिन्दी ज़बान जो दिल में उतर जाती है, वो एक है और शायर चाहता है कि उसकी बात आवाम तक पहुंचे। मेरी किबातें उर्दू, हिन्दी के अलावा पंजाबी, बंगाली, मद्रासी, फ्रंच, रशियन और कई दूसरी ज़बानों में छप रही हैं।
सवालः हिन्दी ग़ज़लकारों में सबसे बड़ा नाम दुष्यंत कुमार का कहा जाता है, आप इससे सहमत हैं?
जवाबः दुष्यंत कुमार ने जो ग़ज़ल के अश्आर लिखे वो ग़ज़ल के उसूलों पर सही उतरे इसलिए
उनको ग़ज़ल का कवि माना गया।
सवालः अगर शिल्प को छोड़ दिया जाए तो हिन्दी और उर्दू ग़ज़ल में क्या  फर्क  है?
जवाबः कोई फर्क नहीं है।
सवालः ये आम चर्चा है अदब के प्रति लोगों का रूझान कम हो रहा है, आप इसे किस रूप में लेते हैं ?
जवाबः मैं तो समझता हूं बढ़ रहा है। बस ज़रूरत है नये तालिबे इल्म को सही गाइड करने वालों की।
सवालः इलेक्ट्रानिक मीडिया के बूम से अदब पर क्या प्रभाव पड़ा है?
जवाब: इलेक्ट्रानिक मीडिया से तो बहुत फायदा हुआ। इधर मैं ग़ज़ल लिखता था और टीवी पर सुनाते ही सारी दुनिया में देखने वाले सुनकर मुझे ख़त और मैसेज भेज देते थे। यानी इंटरनेट पर आप बशीर बद्र की वेबसाइट देखकर नया पुराना सारा कलाम दुनिया के किसी भी शहर मे ंपढ़ सकते हैं। मेरे बेटे तैयब बद्र जो आईआईटी मद्रास में पढ़ रहे हैं, कहते हैं कि लाखों लोग रोज अब्बा आपकी वेबासाइट www.bashirbadra.com और www.irspbb.com खोलकर पढ़ रहे हैं।
सवाल: कहा जाता है कि अदब समाज का आईना है। आपको लगता है कि वर्तमान समय के शायर अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा कर रहे हैं ?
जवाब: जी हां, शायर ने हमेशा जिम्मेदारी को महसूस किया है। और समाज सुधार के लिए आगे भी लिखते रहेंगे।
सवाल: कहा जाता है कि शायर जिन अलामतों का जिक्र अपनी शायरी में करते हैं, आमतौर पर उस पर खुद ही अमल नहीं करते हैं। क्या आपने यह महसूस किया है?
जवाब: आपका इशारा किन शायरों की तरफ है मुझे नहीं मालूम। 2008 ई. में अपनी बीवी डा. राहत बद्र के साथ हज बैतुल्ला की सआदत नसीब हुई। मदीन मुनव्वर में जहां मुझे ठहराया गया था उस कमरे की खिड़की से रौजा-ए-मुबारक का दीदार मैं मुस्तकिल कर सकता था। मुझे ये मेरा शेर अल्लाह सच कर दिखाया।
मुझे ऐसी जन्नत नहीं चाहिए।
जहां से मदीन दिखाई न दे।
चंद शेर और मुलाहिजा फरमाइए-
सात संदूकों में भरकर दफन कर दो नफ़रतें
आज इंसान को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत।
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।
जिस दिन से मैं चला हूं मेरी मंजि़ल पे नज़र है,
आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा।
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में जि़न्दगी की शाम हो जाये।
सर पर ज़मी लेके हवाओं के साथ जा,
 आहिस्ता चलने वालों की बारी न आएगी।
(गुफ्तगू के जून-2013 अंक में प्रकाशित)